3 बंधुत्व, जाति तथा वर्ग (आरधिकं समाज लगभग 600 ई० पू० से 600 ई०)
1. महाभारत की संक्षिप्त कथा लिखिए। महाभारत वास्तव में बदलते रिश्तों की एक कहानी है। यह चचेरे भाइयों के ती
दली-कौरवों और पाण्डवों के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए संघर्ष का वर्णन करती है। दोनों ही दल कुरू वंश से सम्बन्धित थे जिनका कुरू जनपद पर शासन था। उनके संपर्श ने अंततः एक युद्ध को रूप ले लिया जिसमें पाण्डव विजयी हुए। इसके बाद पितृवंशिक उत्तराधिकार की उद्घोषणा की गयी। भले ही पितृवंशिकता की परम्परा महाकाव्य की रचना से पहले भी प्रचलित थी, परन्तु महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने इस आदर्श को और सुदृढ़ किया। पितृवंशिकता के अनुसार पिता की मृत्यु के बाद उसके पुत्र उसके संसाधनों पर
अधिकार जमा सकते थे। राजाओं के सन्दर्भ में राजसिंहासन भी शामिल था।
Q.2. श्रीमद्भगवद्गीता पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
Ans. भगवद्गीता महाभारत का सबसे महत्वपूर्ण उपदेशात्मक अंश है। ‘भगवद्गीता’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘भगवान् का गीत’। वास्तव में यह भगवान् का गीत ही है। लगभग सभी हिन्दू परिवारों में इसका पाठ किया जाता है। इस ग्रंथ में 18 अध्याय है। इसकी मूल आषा संस्कृत है। परन्तु आज इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी (रथवान) बने थे। कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में कौरवों तथा पांडवों की सेनाएँ युद्ध लड़ने के लिए आमने-सामने खड़ी थीं। अर्जुन ने
कौरवों की सेना में अपने सगे-संबंधियों को देखकर युद्ध करने से इंकार कर दिया। वह अपने हाथों से अपने भाइयों तथा अन्य संबंधियों को नहीं मारना चाहता था। ऐसे अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने का उपदेश दिया। यही उपदेश इतिहास में ‘गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर अर्जुन ने अपना धनुषवाण उठा लिया। युद्ध आरंभ हो गया जिसमें पांडव विजयी हुए। भगवद्गीता से यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य को फल की चिता किए बिना अपना कर्म करना चाहिए।
कौरवों की सेवा में अपने सगे-संबंधी को देखकर युद्ध करने से इंकार कर दिया। वह अपने हाथों से अपने भाइयों तथा अन्य संबंधियों को नहीं मारना चाहता था। ऐसे अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने का उपदेश दिया। गही उपदेश इतिहास में “गीता” के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण का उपदेश सुनकर अर्जुन ने अपना चनुवाणउठा लिया। युद्ध आरंभ हो गया जिसमें पांडव विजयी हुए। भगवद्गीता से यह शिक्षा मिलती है कि मनुष्य को फल की चिता किए बिना अपना कर्म करना चाहिए।
3. ‘त्रिपिटक’ के विषय में आप क्या जानते हैं?
Ans. विपिटक का शाब्दिक अर्थ है-तीन टोकरियों जिनमें कि पुस्तक रखी जाती हैं। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके अनुयायियों ने उनकी शिक्षाओं का संकलन तीन पिटको सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक में किया। इन्हें संयुक्त रूप से त्रिपिटक कहा जाता है।
सुत्तपिटक में बुद्ध धर्म के सिद्धान्त मिलते हैं। विनयपिटक में बुद्ध धर्म के आचार- विचार एवं नियम मिलते हैं। अभिधम्मपिटक में बुद्ध का दर्शन मिलता है।
Q.4. वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
Ans. नए देवताओं का उदय ऋग्वैदिक काल के इन्द्र, वरुण, सूर्य, पृथ्वी, अग्नि जैसे प्राकृतिक देवताओं के स्थान पर अब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, पार्वती राम और
कृष्ण आदि नए देवताओं की पूजा आरम्भ हो चुकी थी। • धर्म में पेचीदगी का आ जाना अब धर्म वैदिक काल की भांति सरल नहीं रहा था। अब उसमें दिन-प्रतिदिन नए-नए रीति-रिवाज और संस्कार प्रवेश करते जा रहे थे। बलिदान की ओर लोगों का झुकाव बढ़ गया था। इस प्रकार धर्म इतना पेचीदा हो गया था कि जन-साधारण के लिए उसको समझना बहुत कठिन हो रहा था।
• जादू टोने में विश्वास : लोगों को अब जादू टोने में विश्वास होने लगा था। वे
शत्रुओं को नष्ट करने तथा बीमारी को दूर करने के लिए जादू टोने का आश्रय लेने लगे थे। • मुक्ति, माया, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत में विश्वास अब लोग यह जान गये थे कि संसार एक मायाजाल है, इसलिए इससे निकलकर उन्हें मुक्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए। साथ ही मनुष्य को अच्छे काम भी करने चाहिए ताकि कर्मों के अनुसार उन्हें अगला जन्म अच्छा मिले।
Q.5. जाति और वर्ण में अन्तर बताएँ
। Ans. प्राचीन काल में हिन्दू समाज में केवल चार जातियाँ थी बाह्मण, क्षत्रिय,
• वैश्य और शूद्र। समाज का यह बँटवारा कर्म अथवा व्यवसाय के आधार पर किया गया था। धीरे-धीरे इस बँटवारे का आधारे कर्म न होकर जन्म हो गया और जातियों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी और आज भारतीय समाज में 3,000 से भी अधिक जातियाँ है। वर्ण-व्यवस्था : महाकाव्य युग में जाति-प्रथा निश्चित रूप से स्थापित हो चुकी थी। महाकाव्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णी का उल्लेख है। रामायण के बारी वर्षों की उत्पत्ति परम पुरुष से बताई गई है। ब्राह्मण की उत्पत्ति परम पुरुष के मुख से, क्षत्रियों की भुजाओं से, वैश्यों की पेट से और शूद्रों की चरणों से हुई।
Q.6. पितृवंशिक व्यवस्था की विशेषताएँ बताइए। पितृवंशिकता तथा मातृवंशिकतामें अन्तर बताएँ।
Ans. पितृवंशिक व्यवस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित है-
• महाभारत युद्ध के पश्चात पितृवंशिक उत्तराधिकार की घोषणा की गई। यद्यपि पितृवंशिकता महाकाव्य की रचना से पूर्व भी थी, परन्तु महाभारत की मुख्य कलावस्तु ने इस आदर्श को सुदृढ़ किया। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के पश्चात् उनके संसाधनों का उत्तराधिकरी हो जाता था। अधिकांश राजवंश ई० पू० छठी शताब्दी से पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। कभी-कभी पुत्र के न होने. अनुसरण करते थे। कभी-कभी पुत्र के न होने पर एक-दूसरे का उत्तराधिकारी बन जाता था। यही नहीं बंधु-बांधव भी गद्दी पर आसीन हो जाते थे। स्त्रियाँ गद्दी पर बैठ जाती थी। • पितृवंशिकता के प्रति झुकाव राजवंशों में ऋग्वैदिक काल से ही प्रचलित थी।पितृवंशिकता तथा मातृवंशिकता में अन्तर : पितृवंशिकता से अभिप्राय ऐसी बंशपरम्परा से है जो पिता के बाद पुत्र, फिर पौत्र तथा प्रपौत्र आदि से चलती है। इसके विपरीतमातृवंशिकता वह होती है जब वंश परम्परा माँ से जुड़ी होती है